देश मे किसान आंदोलित हैं। खासतौर पर पंजाब का किसान सड़को पर निकल आया है। देश की राजधानी की सीमाओं पर किसान जमा हुआ सरकार से गुहार कर रहा है कि नए कृषि कानून वापस ले लो। वे कानून जिन्हें सरकार ने किसानों के लिए क्रांतिकारी बताया है। उनकी आय को बढ़ाने वाला बताया। उनके लिए नई उम्मीदें जगाई। किसान उसी कानून को अपने हक के खिलाफ बता रहा है। आखिर अन्नदाता का भरोसा क्यों टूटा है।
अंजना शर्मा
देश मे किसान आंदोलित हैं। खासतौर पर पंजाब का किसान सड़को पर निकल आया है। देश की राजधानी की सीमाओं पर किसान जमा हुआ सरकार से गुहार कर रहा है कि नए कृषि कानून वापस ले लो। वे कानून जिन्हें सरकार ने किसानों के लिए क्रांतिकारी बताया है। उनकी आय को बढ़ाने वाला बताया। उनके लिए नई उम्मीदें जगाई। किसान उसी कानून को अपने हक के खिलाफ बता रहा है। आखिर अन्नदाता का भरोसा क्यों टूटा है। उन्हें क्यों लगता है कि नए कानून से उनके खेतों पर किसी और का कब्जा होगा। आखिर जिस मंडी में सुधार को लेकर खुद महेंद्र सिंह टिकैत जैसे देश के दिग्गज किसान नेता अपने जीवन काल मे आवाज मुखर करते थे उस मंडी के लिए किसानों का प्रेम क्यों जाग गया। एमएसपी कभी भी कानूनी अधिकार नही रहा। सरकार हमेशा कार्यकारी आदेश से एमएसपी तय करती है और किसान उसी एमएसपी के आधार पर अपना अनाज मंडी में या सरकार द्वारा तय केंद्रों पर बेचता है। एक सचाई ये भी है कि एमएसपी का फायदा भी देश के चुनिंदा करीब 6 फीसदी किसानों को ही मिलता रहा है।
दरअसल सारा मामला भरोसे का है। किसानों का भरोसा शायद इसलिए डगमगाया है क्योंकि नए कानून में कारपोरेट एक बड़े प्लेयर के रूप में सामने आ गया है। खेती बाड़ी के लिए कॉन्ट्रैक्ट के आधार और उसमें कारपोरेट को दी गई बढ़त भी शायद शंकाओं को बढ़ाती है। किसान को अपनी आजादी छिनने का डर है। उसे लगता है कि सरकार धीरे धीरे मंडी सिस्टम को समाप्त करके एमएसपी को भी खत्म कर देगी और सबकुछ बाजार के हवाले होगा। किसानों का एक बड़ा सवाल सारे तर्क पर भारी पड़ता है सुधार जब किसी ने इस रूप में मांगा नही था तो ये बिल लाये क्यों। बिल पर चर्चा किससे की। जब किसानों के हित का बिल है तो कम से कम किसानों का भरोसा तो जीता होता।
सरकार की नीयत पर भरोसा कर भी लें तो किसानों का डर भी अनायास नही लगता। आखिर कई उदाहरण है जब उन्हें छला गया। एमएसपी पर खरीद ज्यादातर किसानों के लिए मृगमरीचिका रही है। वहीं गन्ना किसानों का उदाहरण ले लीजिए। उनका भी कॉन्ट्रैक्ट होता है। गन्ना मिल मालिकों से करार के एवज में उनका किस तरह शोषण होता है। वर्षों तक सरकारें भुगतान नही करा पाती। सिस्टम अगर इस तरह के उदाहरणों से लैस होगा तो किसान किसपर भरोसा करेंगे।
अगर कोई विवाद हो तो विवाद का निपटारा भी एसडीएम के हवाले। वे न्यायालय नही जा सकते। मैं तो मानता हूँ कि न्यायालय चले भी जाएं तो किसान क्या कारपोरेट से लड़ पायेगा। इसलिए ऐसी स्थितियों की कल्पना करते हुए भी किसान को ज्यादा ताकत देने की जरूरत है।
याद करिए भूमि अधिग्रहण बिल आया तो भी ऐसे ही बहुत से पेंच थे। जमीन की लड़ाई में उस वक्त भी किसान केंद्र में था। उसे अपनी जमीन जिसे वह मां समझता है उसपर औने पौने दाम में कारपोरेट का कब्जा नजर आ रहा था। लड़ाई लंबी चली। लेकिन सुकून की बात है कि काफी मंथन के बाद संसदीय समिति, सेलेक्ट कमेटी में होते हुए, देशव्यापी मंथन से ऐसा रास्ता निकला जिसमे किसान को सुकून मिला। सरकार को किसानों से बात करके उनका इकबाल कायम करना ही होगा। इस मामले में भी पक्ष विपक्ष की संख्या देखे बिना ये देखने की जरूरत है कि जिसके लिए कानून बने हैं उनको संतोष मिले।
उन लोगों को विशेष तौर पर ये समझना होगा जो ये कह रहे हैं कि केवल पंजाब का किसान सड़को पर है, पंजाब देश की कृषि व्यवस्था की रीढ़ है। हमारे देश का एक समृद्ध राज्य है। खेती किसानी वहां की रगों में है। ऐसे में अगर पंजाब ने शुरुआत की है तो देर सबेर ये और भी व्यापक हो सकता है।
हां किसानों को खुले दिल से सरकार से बात जरूर करनी चाहिए। उन्हें भी ये देखना चाहिए कि कहीं जड़तावादी सोच से उनके लिए अवसर न चला जाये। इकोनॉमी का नया मॉडल किसानों की भी जरूरत है। सरकार जो बिल लाई है देश के कई हिस्सों में खासतौर पर गुजरात मे अच्छे नतीजे भी मिले हैं। इसलिए सकारात्मक सोच से आशंकाओं को दूर करते हुए आगे बढ़ने की जरूरत है।